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इस तिरस्कार का आशातीत प्रभाव हुआ। सब दहल उठे। वह अभिनय-शीलता, जो पहले सबके चेहरे से झलक रही थी, लुप्त हो गयी। मनोहर तो ऐसा सिटपिटा गया, मानो सैकड़ों जूते पड़े हों। इस खटाई ने सबके नशे उतार दिये।
कादिर खाँ बोल– मनोहर, जाओ, जितना दूध है सब यहाँ भेज दो।
गौस खाँ– हमको मनोहर के दूध की जरूरत नहीं है।
बलराज– यहाँ देता ही कौन है?
मनोहर खिसिया गया। उठा खड़ा हुआ और बोला– अच्छा ले अब तू ही बोल, जो तेरे जी में आये कर, मैं जाता हूँ। अपना घर-द्वार सँभाल मेरा निबाह तेरे साथ न होगा। चाहे घर को रख, चाहे आग लगा दे।
यह कहकर वह सशंक क्रोध से भरा वहाँ से चल दिया। बलराज भी धीरे-धीरे अपने अखाड़े की ओर चला। वहाँ इस समय सन्नाटा था। मुगदर की जोड़ी रखी हुई थी। एक पत्थर की नाल जमीन पर पड़ी हुई थी, और लेजिम आम की डाल से लटक रहा था। बलराज ने कपड़े उतारे और लँगोट कसकर अखाड़े में उतरा लेकिन आज व्यायाम में उसका मन न लगा। चपरासियों की बात एक फोड़े का भाँति उसके हृदय में टीस रही थी। यद्यपि उसने चपरासियों को निर्भय होकर उत्तर दिया था, लेकिन इसे इसमें तनिक भी सन्देह न था कि गाँव के अन्य पुरुषों को, यहाँ तक कि मेरे पिता को भी, मेरी बातें उद्दंड प्रतीत हुईं। सब-के-सब कैसा सन्नाटा खींचे बैठे रहे। मालूम होता था कि किसी के मुंह में जीभ ही नहीं है, तभी तो यह दुर्गति हो रही है! अगर कुछ दम हो तो आज इतने पीसे-कुचले क्यों जाते? और तो और, दादा ने भी मुझी को डांटा। न जाने इनके मन में इतना डर क्यों समा गया है? पहले तो ये इतने कायर न थे। कदाचित् अब मेरी चिन्ता इन्हें सताने लगी। लेकिन मुझे अवसर मिला तो स्पष्ट कह दूँगा कि तुम मेरी ओर से निश्चिंत रहो। मुझे परमात्मा ने हाथ-पैर दिए हैं। मिहनत कर सकता हूँ और दो को खिलाकर खा सकता हूँ। तुम्हें अगर अपने खेत इतने प्यारे हैं कि उनके पीछे तुम अत्याचार और अपमान सहने पर तैयार हो तो शौक से सहो, लेकिन मैं ऐसे खेतों पर लात मारता हूँ। अपने पसीने की रोटी खाऊँगा और अकड़कर चलूँगा। अगर कोई आँख दिखायेगा तो उसकी आँख निकाल लूँगा। यह बुड्ढा गौस खाँ कैसी लाल-पीली आँख कर रहा था, मालूम होता है इनकी मृत्यु मेरे ही हाथों लिखी हुई है। मुझ पर दो चोट कर चुके हैं। अब देखता हूँ कौन हाथ निकालते हैं। इनका क्रोध मुझी पर उतरेगा। कोई चिन्ता नहीं, देखा जायेगा। दोनों चपरासी मन में फूले ही न समाये होंगे की सारा गाँव कैसा रोब में आ गया, पानी भरने को तैयार है। गाँव वालों ने भी लल्लो-चप्पो की होगी, कोई परवाह नहीं। चपरासी मेरा कर ही क्या सकते हैं? लेकिन मुझे कल प्रातःकाल डिप्टी साहब के पास जाकर उनसे सब हाल कह देना चाहिए। विद्वान-पुरुष हैं। दीन जनों पर उन्हें अवश्य दया आयेगी। अगर वह गाड़ियों के पकड़ने की मनाही कर दें तो क्या पूछना? उन्हें यह अत्याचार कभी पसन्द न आता होगा। यह चपरासी लोग उनसे छिपाकर यों जबरदस्ती करते हैं। लेकिन कहीं उन्होंने मुझे अपने इजलास से खड़े-खड़े निकलवा दिया तो? बड़े आदमियों को घमण्ड बहुत होता है। कोई हरज नहीं, मैं सड़क पर खड़ा हो जाऊँगा और देखूँगा कि कैसे कोई मुसाफिरों की गाड़ी पकड़ता है! या तो दो-चार का सिर तोड़ के रख दूँगा या आप वहीं मर जाऊँगा। अब बिना गरम पड़े काम नहीं चल सकता। वह दादा बुलाने आ रहे हैं।
बलराज अपने बाप के पीछे-पीछे घर पहुँचा। रास्ते में कोई बात-चीत नहीं हुई। बिलासी बलराज को देखकर बोली– कहाँ जाके बैठ रहे? तुम्हारे दादा कब से खोज रहे हैं। चलो रोटी तैयार है।
बलराज– अखाड़े की ओर चला गया था।
बिलासी– तुम अखाड़े मत जाया करो।
बलराज– क्यों?
बिलासी– क्यों क्या, देखते नहीं हो, सबकी आँखों में चुभते हो? जिन्हें तुम अपना हितू समझते हो, वह सब के सब तुम्हारी जान के घातक हैं। तुम्हें आग में ढकेल कर आप तमाशा देखेंगे। आज ही तुम्हें सरकारी आदमियों से भिड़ाकर कैसा दबक गये?
बलराज ने इस उपदेश का कुछ उत्तर न दिया। चौके पर जा बैठा। उसके एक ओर मनोहर था और दूसरी ओर जरा हटकर उसका हलवाहा रंगी चमार बैठा हुआ था। बिलासी ने जौ की मोटी-मोटी रोटियाँ, बथुआ का शाक और अरहर की दाल तीनों थालियों में परस दीं। तब एक फूल के कटोरे में दूध लाकर बलराज के सामने रख दिया।
बलराज– क्या और दूध नहीं है?
बिलासी– दूध कहाँ है, बेगार में नहीं चला गया?
बलराज– अच्छा, यह कटोरा रंगी के सामने रख दो।
बलराज– तुम खा लो, रंगी एक दिन दूध न खाएगा तो दुबला न हो जायेगा।
बलराज बेगार का हाल सुनकर क्रोध से आग हो रहा था। कटोरे को उठाकर आँगन की ओर जोर से फेंक दिया। वह तुलसी के चबूतरे से टकराकर टूट गया। बिलासी ने दौड़ कर कटोरा उठा लिया और पछताते हुऐ बोली– तुम्हें क्या हो गया है? राम, राम, ऐसा सुन्दर कटोर चूर कर दिया। कहीं सनक तो नहीं गये हो?
बलराज– हाँ, सनक ही गया हूँ।
बिलासी– किस बात पर कटोरे को पटक दिया?
बलराज– इसीलिए कि जो हमसे अधिक काम करता है उसे हमसे अधिक खाना चाहिए। हमने तुमसे बार-बार कह दिया है कि रसोई में जो कुछ थोड़ा-बहुत हो, वह सबके सामने आना चाहिए। अच्छा खाँय तो सब खाँय बुरा खाँय तो सब खाँय लेकिन तुम्हें न जाने क्यों यह बात भूल जाती है? अब याद रहेगी। रंगी कोई बेगार का आदमी नहीं है, घर का आदमी है। वह मुँह से चाहे न कहे, पर मन में अवश्य कहता होगा कि छाती फाड़कर काम मैं करूँ और मूछों पर ताव देकर खाँय यह लोग। ऐसे दूध-घी खाने पर लानत है।
रंगी ने कहा– भैया, नित तो दूध खाता हूँ, एक दिन न सही। तुम हक-नाहक इतने खफा हो गये।
इसके बाद तीनों आदमी चुपचाप खाने लगे। खा-पीकर बलराज और रंगी ऊख की रखवाली करने मण्डिया की तरफ चले। वहाँ बलराज ने चरस निकाली और दोनों ने खूब दम लगाये। जब दोनों ऊख के बिछावन पर कंबल ओढ़कर लेटे तो रंगी बोला– काहे भैया आज तुमसे लश्कर के चपरासियों से कुछ कहा सुनी हो गयी थी क्या?
बलराज– हाँ, हुज्जत हो गयी। दादा ने मने न किया होता तो दोनों को मारता।
रंगी– तभी दोनों बुरा-भला कहते चले जाते थे। मैं उधर से क्यारी में पानी खोलकर आता था। मुझे देखकर दोनों चुप हो गये। मैंने इतना सुना; अगर यह लौंडा कल सड़क पर गाड़ियाँ पकड़ने में कुछ तकरार करे तो बस चोरी का इलजाम लगाकर गिरफ्तार कर लो। एक पचास बेंत पड़ जायें तो इसकी शेखी उतर जाय।’
बलराज– अच्छा, यह सब यहाँ तक मेरे पीछे पड़े हुए हैं। तुमने अच्छा किया कि मुझे चेता दिया, मैं कल सवेरे ही डिप्टी साहेब के पास जाऊँगा।
रंगी– क्या करने जाओगे भैया। सुनते हैं। अच्छा आदमी नहीं है। बड़ी कड़ी सजा देता है। किसी को छोड़ना तो जानता ही नहीं। तुम्हें क्या करना है? जिसकी गाड़ियाँ पकड़ी जायेंगी वह आप निबट लेगा।
बलराज– वाह,लोगों में इतना ही बूता होता तो किसी की गाड़ी पकड़ी ही क्यों जाती? सीधे का मुंह कुत्ता चाटता है। यह चपरासी भी तो आदमी ही है!
रंगी– तो तुम काहे को दूसरे के बीच में पड़ते हो? तुम्हारे दादा आज उदास थे और अम्माँ रोती रहीं।
बलराज– क्या जाने, क्यों रंगी, जब से दुनिया का थोड़ा-बहुत हाल जानने लगा हूँ, मुझसे अन्याय नहीं देखा जाता। जब किसी जबरे को किसी गरीब का गला दबाते देखता हूँ तो मेरे बदन में आग-सी लग जाती है। यही जी चाहता है कि चाहे अपनी जान रहे या जाय, इस जबरे का सिर नीचा कर दूँ। सिर पर एक भूत-सा सवार हो जाता है। जानता हूँ कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, पर मन काबू से बाहर हो जाता है।
Shnaya
15-Apr-2022 01:48 AM
बहुत खूब
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Gunjan Kamal
14-Apr-2022 10:28 PM
Very nice
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